Friday, December 10, 2010

Untitled

दिन रात के इस खेल में
दुनिया की भागती रेल में
सब सुन्न से बैठे हुए हैं
कुछ बन्धनों से ऐठे हुए हैं |
दिखता है सब जो हो रहा है
हर पल ही कुछ खो रहा है |
फूंका ये मंत्र इनपर है किसने
बांध दी है इनकी मति जिसने |
नहीं क्यों खौलता अब रक्त
सब हैं क्यों इतने आसक्त |
ये देख मैं कभी सोचता हूँ
मन को जरा कचोटता हूँ

मिल जाये उत्तर अब तो यही एक रास्ता है ,
जब टूट चूका उस बंधन से ही वास्ता है |
लौट कर जाना कठिन अब लग रहा उस भ्रम के अन्दर
मनुष्य आज भी जहा असल में एक बन्दर |
भले ही आज हम पका कर खाते हैं,
खुले तन में अब हम शरमाते हैं ,
यही तो दुःख है हम इस मिथ्या में ही भरमा गए हैं
ठहर कर देखो कहाँ थे, कहाँ आ गए हैं |

प्रश्न दुविधा संदेह में हाय मैं कैसा फंसा हु
अधेरे में खींचती माया के दलदल में धंसा हु
अब चाह इतनी सी यही है
देखू बस एक बार के क्या सही है
नहीं बचना मुझे इस काल मुख से
नहीं आसक्ति मुझको कोई सुख से
छा रही है फिर सर्वस्व धुंध काली
पुनः संसार चक्र में जीवित निगलने वाली |

जन्म से मृत्यु की दिनचर्या बनायीं इश्वर के डर से
बताई हुई कोई एक राह पकड़ी डर कर समर से
अगर बल है तो अपनी बात हम सशस्त्र परोसते हैं
जो हैं कमजोर अपने भाग्य को वह कोसते हैं
क्यों आये हैं हम ? है क्यों ये जन्म इस धरा पर ?
समय ही नहीं कि कोई सोचे इसपर बराबर
सफलता, धन धान्य, मोह माया को पकड़े
श्रेष्टता के उसी दिवा स्वप्न में जकड़े
बिताते जा रहे हम समय ये बहुमूल्य सोकर
खुलेगी नींद मानवता की अब सर्वस्व खोकर |


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